शनिवार, 3 मई 2014

नकारात्मक मोहब्बत यानि “नमो”



आज के चुनावी माहौल को नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से हाईजैक कर लिया है यह शर्मनाक है. मीडिया का बडबोलापन और जनता की बेबसी यही दो ताकते हैं जो लोकतंत्र को शर्मशार करने के लिए काफी थे.. अब एक और प्रथा जन्म ले चुकी है.. व्यक्तिवादी राजनीती. मुझे यह कतई उम्मीद नहीं थी, की एक व्यक्ति इतना बड़ा हो जायेगा की पूरा हिंदुस्तान उसके बारे में ही बात करेगा. चाहे पक्ष में अथवा विपक्ष में. और देश हित, जन कल्याण, लोकतंत्र, राजनीती ये सब दोयम दर्जे के मामले हो जायेंगे. आखिर कौन जिम्मेदार है इस पूरे मामले के लिए?
मेरी नजर में सिर्फ तीन के ऊपर ये जिम्मेदारी जाती है.
१.       पूँजी
२.       मीडिया
३.       राजनैतिक दिवालियापन 

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

सम्बन्धों कि अनुकूलता आवश्यक है राजनीती के लिए।

बहुधा ये प्रश्न उठता है।  राजनीती में सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है ? मैं समझता हूँ सबसे पहले हम सम्बन्धों कि प्रगाढ़ता को तवज्जो दें तो सबसे अधिक उत्साहवर्धक एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक राजनीती कर सकने में सफल होंगे।  क्योंकि जो सबसे ज्यादा कष्टकारक तत्त्व हमें राजनीती में देखने को मिलती है वो है हर सफलता के बाद किसी प्रिय जन से सम्बन्धों का टूट जाना।

अपने सम्बन्धों कि अनुकूलता पर विशेष ध्यान देने कि जरूरत है क्योंकि , राजनीती अकेले की  जाने वाली कोई व्यवसाय या खेल नहीं अपितु सम्मिलित रूप से राज काज कि सुदृढ़ व्यस्था एवं जन कल्याण को स्थापित करने की विधा है।

हम अनावश्यक रूप से खुद को महत्व देने में इतने मसगूल हो जाते हैं कि हर बात को अपने नफा नुक्सान से तोलने लगते हैं और इस बात से कोसों दूर चले जाते हैं कि हम किस वजह से साथ चल रहे हैं और किस वजह से साथ चलते रहेंगे।  खुद को मनगढंत सेनापति , राजनायक , नेता या समाजसेवी समझ लेना और बात है और खुद को उपरोक्त विशेषणों पर खरा साबित करना और बात है।

कटू परन्तु सत्य यही है कि जो लोग राजनीती को व्यवसाय मान के राजनीती में निश्चित लाभ के हेतु प्रवेश करते हैं , वस्तुतः राजनीती उनके लिए नहीं है ये बात अब धीरे धीरे सामने आ जायेगी।  जनतंत्र कि स्थापना के कई मूलभूत सिद्धांतों में से एक है जनकल्याण एवं बहुगणवाद। अल्पकालिक राजनीती वर्गवाद और क्षेत्रवाद से प्रभावित अथवा संचालित एवं फलित दिख सकती है परन्तु दीर्घकालिक राजनीती हमेशा के लिए उदारवाद और जनकल्याण से ही प्रेरित रहेगी।  हमें ध्यान ये देना है कि हम मूलभूत सिद्धांतों से न भटकें।  सफलताओं को  देख कर नए मानदंडों कि पुनर्रचना में उन्मुख होने  कि बजाय खुद के अस्तित्व को समझ कर खुद के द्वारा जनसामान्य को सर्वोत्तम सेवा देने के प्रयोग में लग जाएं , सम्भवतः यह एक चिरंजीवी राजनीती कि नीव होगी और नेता सर्व विजयी एवं सार्वभौमिक  होगा।

हम जैसा सोंचते हैं वैसा ही बन जाते हैं।  मैने कई लोगों को "आप " की सफलता के बाद कहते सुना - "हम भी अगर आप पार्टी ज्वाइन कर लेते तो आज विधायक तो जरूर बन गए होते " , मुझे अफ़सोस इस बात से हो रहा है कि अभी तक ऐसे नवसिखिओं को राजनीती कि "र" भी समझ नहीं आयी। कुछ लोग तो अरविन्द केजरीवाल से दोस्ती गाढ़ने में लग गए हैं तो कुछ लोग केजरीवाल को अपने प्रोफाइल से प्रभावित कर उसके साथ सम्मिलित होने के रास्ते ढूंढने में लग गए हैं।  कुछ लोग केजरीवाल कि सफलता से इतने उत्साहित हो गए हैं कि वो किसी कीमत पर आगामी लोक सभा चुनावों में उसकी पार्टी से चुनाव लड़ने के लिए खुद को प्रस्तुत करने अथवा करवाने के कई उपायों को लगाने में लग गए हैं।

मूल मंत्र एक ही है , जनता का विश्वास।

केजरीवाल को जनता का विश्वास मिला क्योंकि उसने इस विश्वास को हासिल करने के लिए खुद को उनके बीच रखा।  हर क्षेत्र कि समस्या अलग थी लिहाज़ा अलग अलग अजेंडे पर अलग अलग इलाकों में चुनाव लड़े गए।  राजनीती ये नहीं होती कि आप सत्ता में आ जाओ।  राजनीती ये होती है कि आप जनता कि भावनाओं से खुद के एजेंडों को जोड़ दो।  और ये तब होगा जब आपका एजेंडा जनता का एजेंडा होगा।  वही हुआ और केजरीवाल को समर्थन और विश्वास दोनों मिला।  अब केजरीवाल को ब्रांड इमेज बना कर मीडिया और अन्य नवसिखिये नेतागण खुद का कल्याण करने में लग जाएँ तो इसमें न तो जनता का दोष होगा न केजरीवाल का लेकिन सत्यानाश सिर्फ एक चीज का होगा वो है जनता का प्रकट विश्वास जो उसने व्यवस्था परिवर्तन के लिए दिखलाया है।

जनता दल (यू ) ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में अपनी महत्वकांक्षा में मुह कि खाई है।  पता नहीं कितने लोग इस चोट को खाने के लिए खुद को जिम्मेदार मानते होंगे। भाजपा एवं अन्य दलों कि भी यही कहानी होगी।  कांग्रेस के लिए तो सदमा काफी गहरा रहेगा लेकिन जो बात स्वस्थ राजनीती कि ओरे इशारा कर गयी वह ये कि खुद को बड़ा समझने वाला हमेशा से खुद के लिए विखंडन अथवा नाश को ही न्योता देता है।  जो लोग खुद को जनता से अलग यानि विशेष समझने में लगे थे इतिहास गवाह है उनका क्या हश्र हुआ है।

खैर अब बात ये आती है कि हम सुधार कि शुरुआत कहाँ से करें ? सबसे पहले हम सबको विनम्रता धारण करने कि आवश्यकता है।  अपने सम्बन्धों पर ध्यान देने कि आवश्यकता है और सहनशीलता बरतने कि आवश्यकता है।

गौर से देखेंगे तो जदयू भाजपा के सम्बन्धों कि कटुता एवं अंततः सम्बन्ध विच्छेद  ने एक दूसरे को काफी नुक्सान पहुँचाया है जो आने वाले दिनों में और भी मुखर होकर दिखेगा।  कांग्रेस सहित अन्य दलों में भी आपस के सम्बन्धो के बीच खाई बढ़ने कि वजह से उन्हें भी काफी नुक्सान देखने में आये हैं।  और कई लोग तो व्यक्तिगत कारणो से खुद को दयनीय स्थिति में "मनगढंत मालिक" बना के रखने को विवश हैं, भले ही उन्हें कुछ आता जाता हो अथवा नहीं ये और बात है।

जो व्यक्ति अथवा दल अपने हितैषिओं कि क़द्र नहीं करता उसका क्या सुनिश्चित होता है ? कौन कह सकता है ? आप खुद समझदार हैं ;

…… क्रमशः  

सोमवार, 18 जून 2012

J.D.(U) Showing Matured Politics in Presidential Elections 2012




R.K.Jugnoo, JD(U) Delhi State General Secretary


18 June 2012,Nagaland.
The Indian National Congress cleverly placed his candidate for President Of India, J.D.(U) would must think twice before anouncing or suggesting any name for candidature of presidential elections. J.D.(U) showing the tendency of Matured Politics by avoiding the name of the Honorable Ex- President's Name for the presidential election 2012, as it seems fit in the scenario and put pressures on the mind ...of think tanks to search for the better option, rather sticking with the only available name in its account.

Dr A.P.J Abdul Kalam is an Iconic person, He is an Ideal for the generations, I believe he is beyond the reach of the Politics.. and His name must not be used for such a Politics shown by B.J.P. to hold sweets in both the hands..

B.J.P. seems to be very occupied with the internal conflicts, perhaps it is the reason that, they couldnt make their mind for the candidate, and if they make their mind they couldnt get the common understanding over it through NDA. Otherwise it had much time to think and rethink on the Issue, these are the instances that seems they are happening suddenly but they took birth in far past.

I appreciate our Party's i.e. Janata Dal United Political Stand but I am worried as a whole as we are the part of NDA, and since BJP claims to be the biggest party as NDA alliance, they had to rearrange their mind and make common consensus on Presidential Candidate in previous times...

In my view, "Any Political Party should avoid Instantaneous Politics. They Must focus themselves with persisting Politics."

Sharad ji, No doubt, has a great instinct of Politics and perhaps this is the reason, NDA should take their steps towards making their mind to form and place enough grounds to support existing candidate or extend their support or announce a new Candidate on behalf of NDA..

In my personal View "Mr. Pranab Mukherjee is also the good choice", Lets see what our elders Think..

Good Luck to the Candidates..

I believe Honesty is the best policy.

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

बेअसर..भारत बंद..! असरदार?


५ जुलाई २०१० को भाजपा ,जदयू , सपा व वामदलों समेत सम्पूर्ण विपक्ष के द्वारा आयोजित बंद कितना कारगर रहा ये तो वक़्त बतलायेगा लेकिन इस बंद कि कुछ बातें खास रही... पहला ये कि कांग्रेस कि केंद्र सरकार को ये तो पता चल ही गया होगा कि सम्पूर्ण विपक्ष इस बात कि ताक में है कि बस सेंध लगे और सरकार इनकी बने. लेकिन कांग्रेस को ये नहीं समझ में आता कि जनहित के विरुद्ध चलकर वो कुछ भी हासिल नहीं कर सकती... कांग्रेस जनविरोधी नीतियाँ लागू कर कब तक जनता को बेवक़ूफ़ बनाएगी? भाजपा,जदयू, तो महत्वपूर्ण भूमिका में दिखे लेकिन जदयू और भाजपा के बीच का शीतयुद्ध भी कहीं न कहीं गैरजिम्मेदार नेताओं और कार्यकर्ताओं कि करतूतों कि वजह से सामने आ रहा है जो कांग्रेस,राजद,बसपा और अन्य विरोधी पार्टिओं के लिए शुकून भरा सन्देश दे रहा है...

मोदी कोई फैक्टर नहीं... न ही नितीश कोई फैक्टर हैं.... फैक्टर तो विचारों का होता है व्यक्तिओं का नहीं.... नितीश ने विकास किये लेकिन अपने तरीके को प्राथमिकता देकर... मोदी ने विकास किये लेकिन अपने भाजपाई तरीके से... अब कौन सा फैक्टर जनता चाहती है अपने विकास के लिए ये जनता पर छोड़ देना ज्यादा उचित है बनिस्पत जनता को गुमराह करने के... मैंने भाजपा के किसी कार्यकर्ता को कहते सुना कि, जैसे भगवान् राम पूजनीय हैं वैसे ही भाजपा के लिए मोदी जी हैं... मैं उस कार्यकर्ता को गलत कहने के बजाये उसकी शिक्षा दीक्षा को दोषी मानता हूँ.... मानव पूजक समाज ही कई कूरीतिओं का जन्मदाता है... मोदी जी कि महानता है कि कार्यकर्ता उन्हें इस रूप में देखते हैं...

नितीश जी को भी गुड खाए और गुल्गुल्ले से परहेज करने से बचना चाहिए....
लेकिन गडकरी जी के जैसे विचार हैं ... और जैसी वो हरकतें कर रहे हैं... उस हिसाब से नितीश जी की निति भाजपा को बिहार में लेकर सही ही है... नितीश जी विकास पुरुष तो हैं ही ... इसका श्रेय भी उनको तब ही मिलेगा जब वो अपनी बातों को सही तरीके से रख सकेंगे... सुशिल मोदी जी बिहार के भाजपा के कर्णधार हैं.. और अब सी पी ठाकुर खेवनहार बने हैं... बिहार की जनता... दिमाग से पैदल नहीं... बल्कि काफी समझदार है... यहाँ दकियानूसी और बेवजह की कहानियाँ सुनाने और बनाने की बजाये... लोगों को अपने मुख्या अजेंडे पर केन्द्रित रखना चाहिए और विकास और कल्याण कार्यों के द्वारा जनता का दिल जितने की कोशिश करनी चाहिए....

लेकिन एक ओर अगर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को उनकी उपलब्धि और उनके वचनों के माध्यम से तोल के देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि या तो उन्हें सस्ती लोकप्रियता बटोरने का शौक है.... या फिर उल जलूल बातें और बयान देकर विवादों में बने रहने का शौक... लेकिन जनता गडकरी जी के शौक से इत्तेफाक नहीं रखती... और न ही गडकरी जी को जनता के हितों कि अनदेखी करके चलने का हक बनता है... अभी हाल ही में उन्होंने अफजल गुरु को कांग्रेस का दामाद कह डाला... उधर कांग्रेस सांसद दिग्विजय जी कि वल्दियत पूछ डाली... जिसकी वजह से उन्हें भाजपा के एक समर्पित नेता से हाथ धोना पड़ा.. लेकिन हो सकता है कि गडकरी जी के भाजपा को ताकतवर बनाने का ये कोई हथियार हो... लेकिन मुझे ऐसा कुछ नहीं दीखता... सिवा इसके कि किसी भी दल विशेष को एक फूहड़ नेतृत्व नहीं सुघढ़ नेतृत्व कि जरूरत थी है और रहेगी... चाहे वो दल कोई भी हो... कांग्रेस हो या भाजपा या फिर जदयू ही क्यों न हो..

अगर एन डी ए कि संकल्पना पर चलना है तो एक दुसरे को प्राथमिकता दे कर चलना होगा... भाजपा हो या जदयू दोनों को ही एकसाथ चलने के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो कर चलना पड़ेगा.... पिछले वर्ष मैं लोकसभा चुनावों के दौरान उन्नाव में था... वहां से जदयू के राष्ट्रीय महासचिव जावेद रज़ा प्रत्याशी थे.... लेकिन भाजपा ने वहां एन डी ए कि संकल्पना को ठुकरा कर अपना प्रत्याशी उतारा था.... जाहिर है कि यह तो एक लोकसभा क्षेत्र कि बात थी... लेकिन समझने वाली बात ये है कि कई जगहों पर जहाँ भाजपा का मोह रहा वहां उसने प्रत्याशी खड़े किये.... एन डी ए को ताख पर रखकर...

हाल ही में जदयू कार्यकर्ताओं और नेताओं ने दिल्ली में गडकरी जी का पुतला दहन कर दिया ... सारा मामला बिहारी और उत्तर -भारतियों के ऊपर दिए गए तल्ख़ और गैरजिम्मेदाराना बयानों को लेकर बना था जो गडकरी जी ने दिए थे.... गडकरी जी ने कहा था कि बिहार और उत्तर भारत के लोगों कि वजह से दिल्ली और महाराष्ट्र कि स्थिति नाजुक बनी हुई है और इनकी ही वजह से वहां कई प्रकार कि समस्याएं पैदा हो गयी हैं... जिनमे पेयजल और अन्य समस्याएँ शामिल हैं.... गडकरी जी के हिसाब से ये जनसमूह उन दो प्रदेशों के विकास को बाधित करने वाला प्रथम करक है ... अतः इन्हें वहां से विस्थापित कर दिया जाये...

मुझे हार्दिक तकलीफ हो रही है इस बात को एक बार फिर से कहते हुए.... लेकिन ऐसी नौबत ही क्यों आयी...? जाहिर है कि कोई भी दल जो राष्ट्र विरोधी बयान देगा... या राष्ट्र विरोधी , संविधान विरोधी... या जनविरोधी कृत्या करेगे जदयू उसका पुरजोर विरोध करेगा... संसद से लेकर सड़क तक आन्दोलन किया जायेगा और यही उचित है... बेहतर राष्ट्र निर्माण के लिए भी और जनता के स्वाभिमान को जिन्दा रखने के लिए भी... जाहिर है कि जदयू नीतिगत तरीके से सही थी.... कोई भी दल राष्ट्र को बांटने और अलगाववादी सोंच को बढ़ावा देने कि मानसिकता के साथ चल कर राष्ट्र का हित नहीं कर सकता ... जदयू के सांसदों ने इन्ही मुद्दों पर लोक सभा से इस्तीफा दे दिया था...

भाजपा ,कांग्रेस और राजद के नेता और कार्यकर्ता ये समझ कर चलते हैं कि हिंदुस्तान कि जनता इंडिया टीवी कि दर्शक भर है... जिसपर उड़ने वाला आदमी ... अनोखा शैतान ... और श्रीष्टि ख़त्म हो जाने के किस्से दिन भर दिखलाये जाते हैं... मतलब कि अफवाहों को हकीकत मान लेने वाली जनता....

खैर गडकरी जी के पुतला दहन पर भाजपा के किसी भी नेता नें इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखलाई , ये उनलोगों कि राजनैतिक परिपक्वता का द्योतक है....लेकिन १० मार्च २०१० को होने वाले धरने प्रदर्शन में उन्होंने जदयू के कार्यक्रम को फिस्सड्डी घोषित करने के लिए उन्होंने अपना कार्यक्रम उसी दिन को रखा और जदयू के द्वारा तय दिल्ली के उसी स्थानीय जंतर मंतर के स्थान पर रखा.... जाहिर है कि ये प्रतिस्पर्धा कि सोंच अच्छी तो है लेकिन ओंछी है और एन डी ए कि संकल्पना के लिए घातक है.... क्योंकि १० मार्च को होने वाले कार्यक्रम कि घोषणा शरद जी ने काफी पहले कर दी थी... और भाजपा को इसकी खबर भी थी.. इस कार्यक्रम को प्रतिशोध कि भावना से ग्रसित होकर करने के बजाये एन डी ए का साझा कार्यक्रम बनाया जा सकता था या फिर भाजपा किसी और तिथि को अपना कार्यक्रम रख सकती थी... अथवा जदयू से अपने कार्यक्रम को और आगे कि तिथि तक बढ़ाने कि बात कह सकती थी अथवा आग्रह कर सकती थी .... जदयू अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव कि बातों पर तो चलेगी ही .. चाहे तूफ़ान आये या जलजला .... दिल्ली के प्रदेश अध्यक्षों को एन डी ए कि संकल्पना पर सोंच रखनी चाहिए थी...

लेकिन कैसा रंग तेरा है.... ? भाजपा भी नहीं गदानती न ही जदयू गदानती है... मामला सिर्फ और सिर्फ संख्या बल का है... जो ज्यादा ताकत में है वो दुसरे को कुछ नहीं समझता .... लेकिन अगर लड़ाई विचारों और जनता के मुद्दों कि हो तो हंसुआ के विवाह में खुरपा के गीत गाने से बेहतर है कि साझी रण-नीति पर ध्यान दिया जाए और जनता के हितों कि अनदेखी न कि जाए ....

दोनों दल एक यौगिक नहीं वरन एक मिश्रण के जैसे काम कर रहे हैं..... एन डी ए एक मिश्रण कि जगह एक यौगिक तो नहीं बन सकता ... अपितु इसमें अब भी सुधार कि बड़ी गुंजाईश है....

कांग्रेस कि सरकार चाहे जो करती रहे .... लोग बंद को कितना भी सफल मान कर खुश होते रहें ... कोई सुधार तब तक नहीं आएगा ... जब तक सत्ता पक्ष विपक्ष को इतना ताकतवर न मान ले कि वो तत्काल सत्ता पलट कर सकता है....

अभी हाल ही में कांग्रेस कि सरकार गिर जाने कि पूरी सम्भावना थी ... राजद और बसपा ने अपने पत्ते कुछ इस तरह खोले कि सरकार बच गयी ... ये जनता के साथ धोखा है और ऐसे दलों के द्वारा एक कमजोर विपक्ष बनाने कि संगीन धोखेदारी कि भूमिका को जनता माफ़ न करे तो उनका ज्यादा उज्जवल भविष्य हो सकता है....

महंगाई तो एक ऐसा मुद्दा है जो हमेशा से दायाँ या सुरसा कि भूमिका में लोगों को ही अपना ग्रास बनाता रहा है.... परन्तु ये बंद सत्ता के मद में चूर बैठे राजनेताओं को डरा सके तो ही इसकी सफलता आंकी जानी चाहिए अन्यथा लोगों को चुप होकर बैठ जाना उचित नहीं....

जहाँ तक कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का सवाल है तो वो इतना तो मान कर बैठे हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला .... प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत कई मंत्रिओं के महंगाई को नियंत्रिक न करने के मामले में दिए गए बेबाक बयान .... इसी ओर इशारा करते हैं... कागज पर आंकड़ों के खेल को तो मंत्री , उद्योगपति और मुनाफाखोर ही जाने ...

जनता कि तो थाली में ४ कि जगह अगर १ रोटी आएगी तो भूखो मरने को तो बाध्य वही है न....? यहाँ तो एक रोटी भी नसीब नहीं थी.... उसपर से महंगाई .... खैर भारत बंद एक अचूक हथियार हो सकता है... यदि जनता वाकई अपने आप को शामिल करके सरकार को धिराए और कहे कि ... लोकतंत्र .. मूर्खों पर किया जाने वाला शासन नहीं बल्कि लोहे का वो चना है जिसे चबाने में पीढियां ख़तम हो जाती हैं लेकिन हाथ कुछ नहीं लगता ...

मुझे तो प्रकाश झा कि फिल्म राजनीती को देखने के बाद हंसी आती है कि उन्होंने राजनीती का एक अक्षर भी नहीं सिखा ... और जनता को महा बेवक़ूफ़ घोषित कर दिया ... सुना है मैंने कि उनकी फिल्म हिट हो गयी है.... ये जनता कि हार है... ऐसे फिल्मो ने ही देश का बेडा गर्क करने में अपनी थोड़ी ही सही लेकिन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.... सस्ती लोकप्रियता बटोरने कि चाहत ही इंसान से कई घिनौनी हरकतें करवाती है... वो राजनेता हों ... या फ़िल्मकार ... अगर उनकी बातों से जनता सीधी सरोकार रखती है तो उन्हें चाहिए कि वो पूरी जिम्मेदारी से बोलें ... कार्य करें और अपना जीवन वैसा बनायें ....

लालू जी अपनी सम्मान जनक स्थिति के हिसाब से कुछ ज्यादा ही लट के पट बोल देते हैं और लोग हँसते रहते हैं.... किसी को न कोई लाज आती है न शर्म .... बेतुकी बातों पर हँसना भी बेवकूफी है ... आई पी एल विवाद पर बोलने के दौरान भरे संसद में लालू जी ने कहा ..."यादव का बेटा तौलिया ले कर मुह पोछने टीम में गया है क्या ...? जब संसद में लालू जी ने यह कहा था तो उन्हें यह सोंचना चाहिए था कि इस बात को कह कर वो क्रिकेट के खेल, खिलाडी, खेल भावना और उस प्रदेश का अपमान कर रहे हैं जिस प्रदेश के वो क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष हैं... खिलाडी में अगर खेल भावना नहीं होगी तो क्या वो अमर्यादित सांसदों कि भांति... बल्ले और गिल्लियां तोड़ते और एक दूजे पर भद्दे और गंदे आरोप प्रत्यारोप लगा कर खेल को सम्मान प्रदान करेंगे? जैसे हमारे सम्मानित सांसद संसद कि मर्यादा को मिटटी में मिला कर करते हैं ? शायद ही किसी ने इस बात को गंभीरता से लिया होगा.... लालू जी ने सांसद होने के नाते संसद का अपमान किया था... खुद को किसी जाती विशेष का बतलाकर ... क्योंकि जनप्रतिनिधि किसी एक जाती का नहीं... वरन सम्पुर्ण जनता का होता है.... व्यक्तिगत स्वार्थ का पुजारी नहीं बल्कि राष्ट्र और समाजहित कि बात का पक्षधर होता है....और चुकी वो जन प्रतिनिधि हैं... उन्हें जात पात और निजी भावनाओं से ऊपर उठ कर अपने क्षेत्र कि जनता के बारे में सोंचना चाहिए.....

गैरजिम्मेदार हरकतें कभी भी शोभनीय नहीं होती ... चाहे किसी के द्वारा कि गयी हों ...

मीडिया खुद को चौथा स्तम्भ मनवाने के लिए व्याकुल तो रहती है... उसे खुद में झांक कर देखना चाहिए कि वो जनता को क्या सन्देश देती है.... शरद जी का आक्रोश मीडिया के ऊपर जायज़ था.... बेवकूफी भरे घटनाओं पर केन्द्रित होकर उसको प्राथमिकता देकर सस्ती और भोंडी टी आर पी बटोरने के चक्कर में मीडिया भी कई बार गैर जिम्मेदार दिखती है.... ये गलत है और ये राष्ट्र के साथ धोखा है... जनता के साथ धोखा है.... लोगों के विचार अलग हो सकते हैं.... लेकिन जिम्मेदारिओं के निर्वहन में कोताही ... हमेशा दंडनीय है... अपराधियों को पकड़ने के लिए .. कहाँ कहाँ क्लोज़ सर्किट कैमरे लगाये गए हैं इसको दिखलाने का क्या मतलब ? मीडिया को अपनी भूमिका महत्त्वपूर्ण बनानी होगी ... खबरों को सनसनीखेज बना कर परोसने कि बजाये... उन्हें ख़बरों के महत्व पर ध्यान देना होगा...

कल के बंद के दौरान.... कार्यकर्ताओं कि भिडंत , बार बालाओं का ठुमका .. ये गैर महत्वपूर्ण विषय थे .... जनता को इनसे सरोकार नहीं था बल्कि ... जनता के लिए ये ज्यादा महत्वपूर्ण था कि केंद्र सरकार कि इस बंद पर क्या प्रतिक्रिया रही.... किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया या नहीं...? परन्तु मीडिया इस यक्ष प्रश्न के आस पास भी फटकती नहीं दिखी... वह ठुमके और भाजपा जदयू झंझट दिखलाने में व्यस्त रही...

नाकारात्मक समाचार नकारात्मक मीडिया को ही इन्गीत करती है... मीडिया की सार्थकता सार्थक समाचारों से सही सिद्ध होगी... अज हो या कल हो... .... किसी चैनेल वाले ने तत्काल किसी भी विभाग के मंत्री या किसी सत्ता पक्ष के व्यक्ति से बातचीत नहीं कि और उनकी प्रतिक्रिया नहीं ली ... जनता जो देखना चाहती थी वो डांस नहीं बल्कि असर था...


गैर्जिम्मेदारियां बर्दाश्त करने का अब वक़्त नहीं रहा.... चाहे वो कोई भी हो... विधायीका .. न्यायपालिका ... कार्यपालिका .... या कोई और .... जनता आज नहीं तो कल ... सब कुछ उखाड़ फेकेगी ... उदासीनता तो शुरू हो ही गयी है.... अब बारी केवल तिरस्कार कि है....


अराजकता कि स्थिति के लिए जिम्मेदारी कौन कौन लेंगे यही देखना है... राजनैतिक दल .. सरकार या मीडिया ...?? किसी भी व्यक्ति, दल अथवा संगठन को मुगालते में रहने कि जरूरत नहीं कि जनता धर्म चाहती है या रोटी... जाहिर है जनता रोटी चाहती है... धर्म से आचरण आता है... रोटी से जान ... जान बचाना किसी भी जीव कि प्राथमिकता है इस लिए हम धर्मनिरपेक्ष और जनवादी राष्ट्र कि कल्पना करते हैं और जनवादी विचार के प्रखर प्रहरी बनाने कि ओर अग्रसर रहना हमारा पहला धर्म होना चाहिए....

लोहिया जी के शब्दों में कहें तो ..."राजनीती अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीती..."

साथ ही मैं यह मानता हूँ कि धर्म जनता को नैतिकता प्रदान करती है जबकि राजनीती उसको भौतिक और सामाजिक सुविधाएँ प्रदान करती हैं... इस लिए धर्म आस्था का विषय है और राजनीती विश्वास का.... विश्वासघात सर्वथा निंदनीय है... विश्वासघात कि सजा जनता खुद तय कर लेगी... हमें तो विश्वासपात्र बानने और विश्वास पर खरा उतरने कि कोशिश करनी चाहिए...

II जय हिंद, जय भारत, जय जनते II
आर. के. जुगनू

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

चौथा खम्भा : मरम्मत की जरूरत


विलासपुर (म० प्र०), १७ अप्रैल २०१०। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभों में एक गिने जाने का सौभाग्य मीडिया को है। या मुझे तो यूँ लगने लगा है की जबरन कुछ लोग मीडिया में सिफत इसी लिए आ जाते हैं की वो चौथे खम्भे का हिस्सा बनकर व्यवस्था से तोल-मोल करके अपना उल्लू सीधा कर सकें। बाजारवाद हर जगह हावी है तो फिर मीडिया इस से अलग क्यों रहे? लोग स्वतंत्र लेखन करने का बहाना या यूँ कहें की ढोंग तो करते ही हैं... लेकिन इस हद तक गैर जिम्मेदार हो जायेंगे ये सोंचने समझने से परे रहने वाली बात लगती है...

अभी हाल ही में, इच्छाधारी संत का मामला मीडिया ने जिस तरह से उछाला और करोड़ों के वारे न्यारे किये, लोग यानि आम जनता देखती रही... सरकार और न्यायपालिका, पुलिस और प्रशाशन किन्कर्त्व्यविमुध होकर इस निकम्मेपन को झेलती रही। मीडिया की गैरजिम्मेदाराना हरकतों का खामियाजा हम पहले भी भुगत चुके हैं ... ताज होटल पर आतंकवादी गतिविधिओं का मामला सबके सामने है। पता नहीं कहाँ कहाँ से लोग समाचार वाचक उठा कर ले आते हैं... जिन्हें बोलने तक का सहूर नहीं मालूम। चीख चीख कर बोलते हैं, अनर्गल - असभ्य भाषा का प्रयोग करते हैं... जितनी बेशर्मी से वह पेश आते हैं... उतने ही खुश दीखते हैं... पता नहीं क्या हो गया है बुद्धिजीवी वर्ग को ? पता नहीं लोग इतना चुप क्यों हैं ?

आज मीडिया नें एक ऐसा माहौल बना दिया है की जहाँ हमारे देश की संस्कृति खतरे में है... एक वरिष्ठ पत्रकार नें तो यहूदी, और इस्लाम के आधार पर हिन्दू धर्म के लिए भी एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की बात कह डाली जिसमे धार्मिक गुरु होने के लिए धार्मिक विश्वविद्यालय में पढाई करके फिर डिग्री लेने की प्रारंभिक आवश्यकता हो जाएगी। कौन समझाए इन लोगों को की हिन्दू धर्म इतना अथाह सागर के जैसा है जिसे किसी शब्दकोष में समाहित करके सिलेबस में नहीं बाँधा जा सकता। रही धर्म गुरु होने की बात तो ये इश्वर में आश्था की पराकाष्ठा पार कर अलौकिक ज्ञान प्राप्त कर लेने वालों के लिए ही हो सकता है... और जहाँ तक मुझे लगता है... डिग्री इंसान को किताबी ज्ञान तो दे सकती हैं लेकिन आस्था से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है... अगर ऐसा नहीं होता तो कबीर , रहीम और तुलसीदास को किसी विश्वविद्यालय का कुलपति हुए बगैर इतनी गूढ़ रहस्यों का रहस्योद्घाटन करने का हक नहीं मिलना चाहिए था... कबीर के द्वारा जो योग दर्शन व्यक्त किया गया वह आज भी शोध का विषय बना हुआ है.... उन्होंने परब्रह्म को पाने और योग के माध्यम से खुद के नवनिर्माण की जो बात कही , स्वामी रामदेव उसी कड़ी को कुछ अंशों में आगे ले जाते हुए दीखते हैं... लेकिन रामदेव अभी भी योग से स्वस्थ्य को जोड़ने में व्यस्त हैं... योग की पूर्णता तो गीता में ही दीखती है... खैर मैं इन विवादों में नहीं पड़ना चाहता ... मैं तो ये चाहता हूँ की जिन विषयों पर लोगों को ज्ञान न हो उन विषयों पर अनर्गल राय व्यक्त करने से बचना चाहिए...

मीडिया में कार्यरत लोग... एक ओरे तो किसी को इच्छाधारी कहते हैं वहीँ दूसरी तरफ उसको संत भी कहते हैं... मेरे हिसाब से संत वो होता है जिसने साड़ी इच्छाओं का त्याग कर दिया हो.... संत की कहीं भी ऐसी परिभाषा नहीं जो मीडिया वाले बतलाने में जुड़े होते हैं....

खैर मीडिया के लोग चीख चीख कर कहते हैं "ये देखिये... एक संत का असली चेहरा... सेक्स रैकेट चलता हुआ पकड़ा गया ये संत....." न्यूज़ की सुर्खियाँ ये भी हो सकती हैं... "संत के भेष में छुपा एक अपराधी का पर्दाफाश... अरसे से सेक्स रैकेट चलने वाला यह अपराधी पहले भी लोगों को बेवकूफ बना चूका है..." पहले वाक्य में संत दोषी लगता है... लेकिन अगले वाक्य में दोष अपराधी पर है...

आज कल टी.वी.चैनलों पर तमाम नास्तिक लोगों को बुला कर उनका मुठभेड़ तमाम शश्त्रिओन और पंडितों से करवा कर थोथे तर्क वितर्क का कार्यक्रम चलाया जाता है.... जिन लोगों को जिस विषय का ज्ञान ही नहीं उन्हें बहस में बिठाने का क्या मतलब? ऐसा लगता है जैसे मैना , कौवा , तोता, बगुला सभी अपनी अपनी भाषा में बात कर रहे हैं... लेकिन जो ज्ञानी पुरुष वहां बैठा है वो अपनी छीछालेदर करवाने वहां आया है...

अरे भाई....
इस देश की जनता भूखों मरने के कागर पर है... मीडिया अगर चौथा खम्भा है... तो उसको जनता के ऊपर केन्द्रित होकर , सरकार, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका के बीच के सेतु के रूप में कार्य करना चाहिए न की... लोगों को इस अनुत्तरित बहस में फंसा कर उनका समय और मान दोनों ख़त्म करना चाहिए...
क्रमशः ........

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

जनता जन्तु - निरंकुश राज

बंगलूरू १० नवम्बर ।
मैं इन्तेजार कर रहा था की राज ठाकरे के मुद्दे को लेकर क्या सोंच रखते हैं हमारे राज नेता... हमने देखा की सारे नेता गन जनता को जन्तु समझने से बाज नही आ रहे। राज ठाकरे तो अपनी पहचान के लिए लालायीत है और वो सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए भोंडे भाषण कला और घिनौनी और गन्दी राजनीति या आप यूँ कहें की ठाकरेनिति को लागू करने में लगा है... कहाँ गए हैं इस देश की मान सम्मान की रक्षा का दंभ भरने वाले हमारे राज नेता ? लोकतंत्र शर्मशार हो गया... ये कह देने मात्र से राज सरीखे देश्द्रोहिओं को कोई फर्क पड़ जाएगा.... ऐसा नही लगता... जो दल इस देश के संविधान में आस्था नही रखता उस दल के चार सिपहिओं को ही क्यों पूरे दल को विधानसभा या लोकसभा से निष्काषित क्यों न कर दिया जाए ? दल के मुखिया को देशद्रोह के मामले में लेकर क्यों न कारागार में ठूंस दिया जाए? किस बात का इन्तेजार है भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार को ? इश्वर की शपथ लेकर जनता के हितों की रक्षा और भारत के अखंडता और सम्प्रबूता की रक्षा का प्रण लेने वालों को ? अगर इनलोगों नें चूडियाँ पहन कर राज ठाकरे के दरबार में नर्तक और नार्ताकिओं की भांति नाचने गाने के लिए ही प्रतिबद्धता स्वीकार कर ली है... और कोई भी मजबूरी अगर इन्हे देश्द्रोहिओं को वाजीब सज़ा देने से रोक रही है तो ... बेहतर ये है की जनता का मुख देख कर... उनके भावनाओ का ख्याल करते हुए संवैधानिक भाषा में जवाब देने के बजाये... मजबूत कदम उठायें ताकि देश्द्रोहिओं को पनाह के लिए तरसना पड़ जाए.... आज नही तो कल इस देश की जनता सबक सिखाएगी उस हर राष्ट्र सेवकों को जो राजनैतिक मज्बूरिओं का हवाला देकर जनता को जन्तु समझने की गलती कर बैठते हैं...
राज ठाकरे.... को संहारने के लिए शरद यादव, नीतिश कुमार, मुलायम सिंह, लालू यादव, राम विलास पासवान और ऐसे ही कई राजनैतिक हस्तियों की जरूरत नही... बल्कि इस देश के एक सच्चे नौजवान देशभक्त की जरूरत है.... जो राजनीति से ऊपर उठ कर देशभक्ति की बात सोंच सके...
ठाकरे निति कहती है की मराठा मानुष के नाम पर देश को ताख पर रख दो.... और राष्ट्र के संविधान को चूल्हे में लगा दो... और इस ठाकरे निति से हमारे देश के स्वाभिमान अखंडता एकता और संप्रभुता को खतरा हो तो भी हाथ पर हाथ रख कर बैठना कोई राजनैतिक मजबूरी हो सकती होगी किसी सरकार , दल अथवा किसी राजनेता की... लेकिन जिस जनता को जन्तु मान के लोग बैठे हैं... इस जनता में जरा जागृति का संचार हनी भर की देर है.... क्रिकेट प्रेम में देशभक्ति प्रर्दशित करने वाली जनता को अब ये भी समझ में आना चाहिए की देश प्रेम केवल क्रिकेट ... नाच गानों के प्रतियोगिओं के नाम पर संक्षिप्त संदेश भेज कर या पाकिस्तान विरोधी नारे लगा देने भर से कोई रस्व्ह्त्र भक्त नही हो जाता.... राष्ट्र की गरिमा को धूमिल करने वालों को ख़तम करना भी राष्ट्र भक्ति है... अलगाव्वादिओं को अगर सरकार नही रोक सकती तो फिर उनका फैसला जनता करेगी.... और जनता के द्वारा चुनी गई सरकार अपनी मज्बूरिओं को गिनाती रहेगी.... लेकिन मुझे लगता है... की जन्तु बन चुकी जनता ही काफ़ी है इस राज के खात्मे के लिए... लोग तमाशा देखते रह जायेंगे और "गणपति" अपना फ़ैसला कर देंगे....
शर्म करने की जरूरत राज ठाकरे को नही... क्योंकि ये तो राष्ट्र द्रोही है ही.... इनकी शब्दकोष में स्वभक्ति है... स्वकल्याण एवं राजनैतिक दूर्भिक्ष्ता से पलायन कर राजनैतिक बहार को पाने की उत्कट लालसा है... वो भी जैसे तैसे... चाहे राष्ट्र की कीमत पर हो या राष्ट्र भाषा की कीमत पर...
बल्कि शर्म तो भारत की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा की कसम खा कर राजनैतिक श्रेष्ठ पदों पर आसीन हुए लोग और विधि के नाम पर स्थापित भारत के संविधान में अटूट आस्था के नाम पर बनाये गए दलों और परशन के प्रमुखों और राज्य व राष्ट्र सेवा में संलग्न अधिकारिओं और पुलिश बल और इन्सबसे ऊपर न्यायपालिका को होनी चाहिए.... ये तमाशा देख कर संवैधानिक भाषा में टिपण्णी करके जनता को अपना मत और सोंच प्रर्दशित करने का समय नही ... अपितु देश्द्रोहिओं की शल्य चिकित्सा के मानदंड स्थापित करने का वक्त है...
कोई नही करेगा तो "गणपति" कर देंगे... जो जनता के सच्चे प्रतिनिधि हैं आधा जन्तु - आधी जनता।
देखना है की ठाकरे महाराष्ट्र से गणपति को कैसे निकल बहार करते हैं... या ये गणपति ठाकरे को राजनीती से निकल बहार करते हैं....
जो व्यक्ति... दल अथवा संगठन देशद्रोह को समर्थन दे रहा हो... उसको अगर आधिकारिक रूप से मुद्रा के व्यवहार पर रोक लगा दिया जाए तो फिर देखते हैं.... मराठा मानुष के नाम पर देश द्रोह चलाने वालों में कितनी सलाहियत है.... ये केवल मराठा मानुष के नाम पर देश्द्रोहिओं पर ही नही बल्कि उस हर संगठन से ताल्लुक रखने वाली चीज है जो इस देश में अलगाववाद को बढावा देते हैं....
"सत्यम तवैव विज्ञातु "
इस मंत्र के आधार पर अगर खोज की जायेगी तो पता लगेगा की मराठा प्रेम राज ठाकरे की निजी सोंच है... जबकि देश प्रेम मराठों की आम सोंच है... अतः दोषी मराठी नही... ठाकरे हैं...
अनर्गल प्रलाप का वक्त नही... निरंकुशता व राष्त्रद्रोहिओं को काबू करने की कवायद की आवश्यकता है... अपराधी समूह नही व्यक्ति होता है ... अपराधिओं का संगठन हो सकता है ... राज्य या देश नही ।
जय हिंद जय जनते ॥
आर.के.जुगनू

सोमवार, 3 अगस्त 2009

लाल क्रन्तिकारी या तो पीठ हैं या फ़िर पेट


पटना ४ अगस्त।
मुझे लाल क्रांति से सम्बंधित इन क्रांतिकरिओं और सरकारी , पुलिसिया, और अफसरी तंत्र के बीच एक सम्बन्ध नजर आने लगा है खास तौर से १९९१ के चरण और २००८ के आर्थिक मंदी के मामले में इन लाल क्रांतिकरिओं के व्यवहार और कार्यकलापों को देखते हुए....
खैर अब एक उदहारण लीजिये। एक बार एक आदमी किसी अमीर आदमी के घर गया। वहां उसने अपनी आंखों से बहुत कीमती कीमती वस्तुएं देखि। जो उसने पहले कभी नही देखी थी। उस आदमी के मन-मस्तिष्क में एक लालच और चोरी करने का विचार जागा। वह दबे हुए कदमों से आहिस्ता आहिस्ता चलता हुआ उस सामान तक सावधानी से पहुँचा। उस आदमी नें अपनी गर्दन इधर उधर घुमा कर अपनी नजरें दौराईं और उसने धीमे से उस कीमती वस्तु को अपनी हाथों में लेकर अपने झोले में रख लिया। अब चोरी हो चुकी थी लिहाज़ा तेज कदमों से चलता हुआ वो आदमी घर से बाहर जाने को हुआ। किसी नें उसे संदिग्धावस्था में देख लिया। वह भागने को दौडा और कुछ दूर भागने के बाद पकड़ा गया। उसकी हालत ये साफ़ बयां कर रही थी की उसने चोरी की है। लिहाज़ा लत्तम जुत्तम शुरू हो गया। झापड़, तमाचा, घूंसे और केहुनी की घमाघम शुरू हो गई। जाहिर है इन घमाघम प्रोग्राम के लिए पीठ सबसे उपयुक्त होता है और हुआ भी। और घूंसों के लिए सबसे पसंदीदा स्थान पेट होता है सो हुआ भी। झापड़ और तमाचा तो गाल पर ही लगता है। मार कितनी भी भयावह लगे झापड़ और तमाचे की संख्या निम्नतम होती है। यानी कुल मिला के ये मतलब निकला की मूल मार घूंसों और घमाघम केहुनी की हुई। मतलब ये हुआ की पेट और पीठ बुरी तरह पिटे।

अब सोंचिये....

चोरी जैसे जघन्य अपराध करने में शामिल दोषिओं के नाम .... आँखें, मन-मस्तिष्क , कदम या टांगें, गर्दन, हाथ आदि,

जिसे सजा मिली वो था पेट और पीठ

इस पूरे प्रकरण में बेचारे पेट और पीठ का क्या दोष था जो वो पिट गए वो भी इस कदर ? जो बेचारे असहाए हैं जिधर टांगें भागेंगी उधर जाना उनकी मजबूरी है। ऐसे स्थिति में मैं अगर देखूं तो मुझे पेट और पीठ के साथ अन्याय होता दीखता है... और सही मामले में दोषिओं को सजा मिली ही नही।

जहाँ विकास नही पहुँच पा रहा वहां पहले से ही लाल क्रन्तिकारी यानि कामरेड पहुँच जा रहे हैं। जंगल और जमीन के मामले में बस येही समझ लीजिये की वो वही कीमती सामान है जिसे पहले किसी नें देखा नही था। जो आँखें देख रही हैं वो व्यापारिओं की आँखें हैं। जो मन-मस्तिष्क लालच से भरा पड़ा है वो सरकारी (राजनैतिक) मन है। जो कदम वहां तक जा रही हैं वो पुलिसिया कदम है, विदेशिओं के कदम हैं जिनकी आँखें तिरछी होती हैं... या तिरछी आंखें पाये जाती हैं... जो गर्दन इधर उधर घूम कर नजरें दौरा रही हैं वो दलालों की भूमिका में हैं तो जो हाथ उस सामान को छू रहे हैं वह हाथ गद्दारों के हैं, चोरों के हैं, यानि अफसरी हाथ हैं, जो असली मालिकों के वस्तुओं को चुरा लेना चाहते हैं। उन्हें उस पूँजी से बेदखल कर देना चाहते हैंकभी उन्हें विकास के नाम पर कभी वन संरक्षण के नाम पर, कभी बाघों के संरक्षण के नाम पर आदि आदि और जब सब कुछ जनता जनार्दन की नजर में बे परदा होने को हो तो .... पीठ और पेट यानि आदिवासिओं और कमजोर तबके के लोगों पर घमाघम प्रोग्राम , घूंसे और लत्तम जुत्तम मजे की बात तो ये की इस कार्यक्रम के एवज में भी कमाई यानि की चोर पकड़ने का इनाममतलब ये हुआ की नाक्सालिओं के नाम पर उनसे पंगे लेने के लिए जो अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं .... मेरा तात्पर्य इस तथ्य से है... उस धन का उपभोग तो कोई सामजिक जीव मात्र ही करते हैं.... वैसे भी धन की तीन गति है.... भोग... दान ... अथवा नाश... भोग ही अछा है... दान करने से .... तो सारा धन भोग में गया....
ऐसे ही कन्डीशन में पेट और पीठ कवच धारण करने लगा है... कछुओं की तरह। जाहिर है इनकी चाल तो धीमी होगी लेकिन ये चलेंगे अनवरत कुछ लोग कवच खरीद कर भी पहन लेते हैं ... कर्ण बनने के लिए लेकिन वो कर्ण नही हो सकते क्योंकि वो दानी नही हड़पने वाले धूर्त और अव्वल दर्जे के मक्कार होते हैं जो अमूमन मस्तिष्क के द्वारा संचालित और अन्य दोषिओं के द्वारा समर्थित और कभी कभी आंखों के द्वारा संपोषित भी होते हैं।

ये कवच धारण करने का सिलसिला बंद हो और वो भी सामान्य पेट और पीठ की भांति रहे... तो कहाँ कहाँ सुधार करना होगा मेरे ख्याल से जब इतना पढिये लिए तो ऊ तो समझिये गए होंगे...

आजाद भारत में ई सब नौटंकी होगा तब कैसे विकास होगा। आजादी का परचम लहराने के लिए गुलामी करवाने की प्रथा समाप्त करनी होगी। बराबर का हक देना होगा और सम्मान भी। प्रकृति के संरक्षण का मतलब ये नही की जानवरों की जान की कीमत इंसानों के जान से अधिक हो जाए।
ऐसा हो सकता है की ये लेख किन्ही इमानदार और समर्पित भाइयों को आहात करे । मैं उनसे तत्काल क्षमा चाहता हूँ। लेकिन अगर अंतरात्मा की आवाज सुनी जाए तो सारे शिकवे स्वतः नष्ट हो जायेंगे। उपरोक्त पुष्टिकरण उस हर कार्मिक परिप्रेक्ष्य में लागू हैं जहाँ अपने फर्ज और मिटटी से गद्दारी करने की कवायदें मन-मस्तिष्क में उपजती हैं और हमारा अंग अंग उनका साथ देता है.... पेट और पीठ तो असहाय हैं । पेट को पापी पेट की पहचान मिली और पीठ की तो पहचान भी नही मिली कभी...

जय हिंद जय भारत जय जनते ।