पटना ४ अगस्त।
मुझे लाल क्रांति से सम्बंधित इन क्रांतिकरिओं और सरकारी , पुलिसिया, और अफसरी तंत्र के बीच एक सम्बन्ध नजर आने लगा है खास तौर से १९९१ के चरण और २००८ के आर्थिक मंदी के मामले में इन लाल क्रांतिकरिओं के व्यवहार और कार्यकलापों को देखते हुए....
खैर अब एक उदहारण लीजिये। एक बार एक आदमी किसी अमीर आदमी के घर गया। वहां उसने अपनी आंखों से बहुत कीमती कीमती वस्तुएं देखि। जो उसने पहले कभी नही देखी थी। उस आदमी के मन-मस्तिष्क में एक लालच और चोरी करने का विचार जागा। वह दबे हुए कदमों से आहिस्ता आहिस्ता चलता हुआ उस सामान तक सावधानी से पहुँचा। उस आदमी नें अपनी गर्दन इधर उधर घुमा कर अपनी नजरें दौराईं और उसने धीमे से उस कीमती वस्तु को अपनी हाथों में लेकर अपने झोले में रख लिया। अब चोरी हो चुकी थी लिहाज़ा तेज कदमों से चलता हुआ वो आदमी घर से बाहर जाने को हुआ। किसी नें उसे संदिग्धावस्था में देख लिया। वह भागने को दौडा और कुछ दूर भागने के बाद पकड़ा गया। उसकी हालत ये साफ़ बयां कर रही थी की उसने चोरी की है। लिहाज़ा लत्तम जुत्तम शुरू हो गया। झापड़, तमाचा, घूंसे और केहुनी की घमाघम शुरू हो गई। जाहिर है इन घमाघम प्रोग्राम के लिए पीठ सबसे उपयुक्त होता है और हुआ भी। और घूंसों के लिए सबसे पसंदीदा स्थान पेट होता है सो हुआ भी। झापड़ और तमाचा तो गाल पर ही लगता है। मार कितनी भी भयावह लगे झापड़ और तमाचे की संख्या निम्नतम होती है। यानी कुल मिला के ये मतलब निकला की मूल मार घूंसों और घमाघम केहुनी की हुई। मतलब ये हुआ की पेट और पीठ बुरी तरह पिटे।
अब सोंचिये....
चोरी जैसे जघन्य अपराध करने में शामिल दोषिओं के नाम .... आँखें, मन-मस्तिष्क , कदम या टांगें, गर्दन, हाथ आदि,
जिसे सजा मिली वो था पेट और पीठ।
इस पूरे प्रकरण में बेचारे पेट और पीठ का क्या दोष था जो वो पिट गए वो भी इस कदर ? जो बेचारे असहाए हैं जिधर टांगें भागेंगी उधर जाना उनकी मजबूरी है। ऐसे स्थिति में मैं अगर देखूं तो मुझे पेट और पीठ के साथ अन्याय होता दीखता है... और सही मामले में दोषिओं को सजा मिली ही नही।
जहाँ विकास नही पहुँच पा रहा वहां पहले से ही लाल क्रन्तिकारी यानि कामरेड पहुँच जा रहे हैं। जंगल और जमीन के मामले में बस येही समझ लीजिये की वो वही कीमती सामान है जिसे पहले किसी नें देखा नही था। जो आँखें देख रही हैं वो व्यापारिओं की आँखें हैं। जो मन-मस्तिष्क लालच से भरा पड़ा है वो सरकारी (राजनैतिक) मन है। जो कदम वहां तक जा रही हैं वो पुलिसिया कदम है, विदेशिओं के कदम हैं जिनकी आँखें तिरछी होती हैं... या तिरछी आंखें पाये जाती हैं... जो गर्दन इधर उधर घूम कर नजरें दौरा रही हैं वो दलालों की भूमिका में हैं तो जो हाथ उस सामान को छू रहे हैं वह हाथ गद्दारों के हैं, चोरों के हैं, यानि अफसरी हाथ हैं, जो असली मालिकों के वस्तुओं को चुरा लेना चाहते हैं। उन्हें उस पूँजी से बेदखल कर देना चाहते हैंकभी उन्हें विकास के नाम पर कभी वन संरक्षण के नाम पर, कभी बाघों के संरक्षण के नाम पर आदि आदि और जब सब कुछ जनता जनार्दन की नजर में बे परदा होने को हो तो .... पीठ और पेट यानि आदिवासिओं और कमजोर तबके के लोगों पर घमाघम प्रोग्राम , घूंसे और लत्तम जुत्तम। मजे की बात तो ये की इस कार्यक्रम के एवज में भी कमाई यानि की चोर पकड़ने का इनाम। मतलब ये हुआ की नाक्सालिओं के नाम पर उनसे पंगे लेने के लिए जो अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं .... मेरा तात्पर्य इस तथ्य से है... उस धन का उपभोग तो कोई सामजिक जीव मात्र ही करते हैं.... वैसे भी धन की तीन गति है.... भोग... दान ... अथवा नाश... भोग ही अछा है... दान करने से .... तो सारा धन भोग में गया....
ऐसे ही कन्डीशन में पेट और पीठ कवच धारण करने लगा है... कछुओं की तरह। जाहिर है इनकी चाल तो धीमी होगी लेकिन ये चलेंगे अनवरत। कुछ लोग कवच खरीद कर भी पहन लेते हैं ... कर्ण बनने के लिए लेकिन वो कर्ण नही हो सकते क्योंकि वो दानी नही हड़पने वाले धूर्त और अव्वल दर्जे के मक्कार होते हैं जो अमूमन मस्तिष्क के द्वारा संचालित और अन्य दोषिओं के द्वारा समर्थित और कभी कभी आंखों के द्वारा संपोषित भी होते हैं।
ये कवच धारण करने का सिलसिला बंद हो और वो भी सामान्य पेट और पीठ की भांति रहे... तो कहाँ कहाँ सुधार करना होगा मेरे ख्याल से जब इतना पढिये लिए तो ऊ तो समझिये गए होंगे...
आजाद भारत में ई सब नौटंकी होगा तब कैसे विकास होगा। आजादी का परचम लहराने के लिए गुलामी करवाने की प्रथा समाप्त करनी होगी। बराबर का हक देना होगा और सम्मान भी। प्रकृति के संरक्षण का मतलब ये नही की जानवरों की जान की कीमत इंसानों के जान से अधिक हो जाए।
ऐसा हो सकता है की ये लेख किन्ही इमानदार और समर्पित भाइयों को आहात करे । मैं उनसे तत्काल क्षमा चाहता हूँ। लेकिन अगर अंतरात्मा की आवाज सुनी जाए तो सारे शिकवे स्वतः नष्ट हो जायेंगे। उपरोक्त पुष्टिकरण उस हर कार्मिक परिप्रेक्ष्य में लागू हैं जहाँ अपने फर्ज और मिटटी से गद्दारी करने की कवायदें मन-मस्तिष्क में उपजती हैं और हमारा अंग अंग उनका साथ देता है.... पेट और पीठ तो असहाय हैं । पेट को पापी पेट की पहचान मिली और पीठ की तो पहचान भी नही मिली कभी...
जय हिंद जय भारत जय जनते ।